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हर रात हो इश्क़ की रात

एक तपिश सी थी
जब तुमको छुआ था
सर्द चाँद रात मैं
जब उस गर्मी मैं
तुम्हारे होठों ने
मेरे होठों से कुछ
कहना चाहा था
मगर चुपके से
छू लिया था मेरे होठों को
फिर कुछ आग भी लगी थी
दो भीगे जिस्मों मैं
आज अब्र कह रहा है
की कुछ छींटें गीरेंगी
क्यों ना हम भी भीग जाए
इस गीली रात के साए मैं,
फिर रात को
निचोड़ लेंगे
और मोहब्बत के रंगों मैं
भिगो देंगे,
अपने तन-मन को
यही खेल खेलेंगे
जब तक है साथ
हर रात हो इश्क़ की रात
हर सहर हो मुस्कुराती हुई

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