मेरे घर पे पीछे
एक रेल की पटरी गुज़रती है
या यूँ कहो की लोग गुज़रते हैं
कुछ लोग तो हैं ट्रेन मैं सफ़र करने वाले
कुछ पटरी को रास्ता समझ कर
बात-चीत करते हुए गुज़रते हुए
मैं जब भी बाल्कनी मैं खड़े होकर
चाय की प्याली लिए सुबह रेल गाड़ियों को निहारता हूँ
तो कुछ लोग मेरी इमारत को देखते हैं
नज़र पॅड ही जाती है ना चाहते हुए भी उनकी
तब शायद मैं भी उनके सफ़र का हिस्सा बन जाता हूँ
उन भागते हुए पेड़ों की तरह
जो रास्ते मैं हर मुसाफिर को मिलते हैं
जो उनको रास्ता दिखाते हैं
मैं तो कोई रास्ता नही दिखाता
बस ठिठक जाता हूँ समय की तरह
दिन मैं शायद 25-30 ट्रेन आती हैं
हॉर्न की आवाज़ से अब मंज़िल पता चलती है
ये शायद पुणे वाली शताब्दी गयी
हमेशा जल्दी मैं रहती है कम्बख़्त
पॅसेंजर ट्रेन तो मेरे घर के पीछे रुक जाती है
उसको सिग्नल भी कोई नही देता
लोग कूद कर अंगड़ाई लेते हुए
इधर उधर ताकते हैं
नज़र मेरी भी पड़ती है उधर
फिर सोचने लगता हूँ की
ये सब कहाँ से चले थे
और कहाँ जा रहे होंगे
सफ़र कहाँ से कहाँ का है
ये शहर इनकी मंज़िल है
या एक और ट्रेन बदलनी है
आगे वाले स्टेशन से
मुझसे इन रैल्गाड़ियों का नाता सा है कुछ
मैं मुसाफिर हूँ किसी और परवाज़ का
ये मुसलसल चलती रहती हैं
मंज़िल का ठिकाना नहीं
मुझे बोहत से लोग देखते होंगे
जब जब मैं पटरियों की जानिब देखता हूँ
ये इक अजीब सी दास्तान है
ये बात तो माननी होगी
मैं एक छोटा और मामूली सा सही
पर उनका सफ़र मेरा सफ़र भी है
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