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Mulakaat



- संदीप कुलश्रेष्ठ
इक मुलाकात से
दो ख़याल मिलते हैं
और ख़यालों के दौर मैं
कुछ उलझनें सुलझ जाती हैं
कुछ सुलझी हुई खामोशियाँ
बिखर जाती है
सवरने के लिए
कुछ पैघाम आते है
कुछ ख्वाहिशें मुस्कुराती है
कुछ नये वादे मुकम्मल होते हैं
कुछ माज़ी मैं क़ैद ही रहते हैं
रहने ही चाहिए, शायद
आओ इक मुलाक़ात करें
और रुख़ करें साहिल की जानिब
जहाँ मंज़िल का कोई फलसफा नहीं
बस बैठे ही रहना है
ख़यालों के दरमियाँ

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तुम से ही मेरा जीवन है

तुम्हारे जाने के बाद जीवन का सारांश समझ आ गया वो जो अपने होते है उन्ही से जीवन होता है एक छोटी सी बात पे मैने कुछ बोल दिया तुमने उसको बड़ा बना कर बेवजह मोल दिया किसकी ग़लती कौन जाने बस देखता हूँ दरवाज़े को कोई दस्तक दे शायद क्या करूँ , किससे बात करूँ अकेला हूँ पर भीड़ है बौहत थक गया हूँ अपने से लड़ते लड़ते तुम्हारे बिना एक प्याला चाय का भी स्वाद नहीं देता बस तुम हो सामने तो ज़िंदगी कट जाएगी तुम से ही मेरा जीवन है

Jism Tarasha tha tumhara

रेल की पटरी

मेरे घर पे पीछे एक रेल की पटरी गुज़रती है या यूँ कहो की लोग गुज़रते हैं कुछ लोग तो हैं ट्रेन मैं सफ़र करने वाले कुछ पटरी को रास्ता समझ कर बात-चीत करते हुए गुज़रते हुए मैं जब भी बाल्कनी मैं खड़े होकर चाय की प्याली लिए सुबह रेल गाड़ियों को निहारता हूँ तो कुछ लोग मेरी इमारत को देखते हैं नज़र पॅड ही जाती है ना चाहते हुए भी उनकी तब शायद मैं भी उनके सफ़र का हिस्सा बन जाता हूँ उन भागते हुए पेड़ों की तरह जो रास्ते मैं हर मुसाफिर को मिलते हैं जो उनको रास्ता दिखाते हैं मैं तो कोई रास्ता नही दिखाता बस ठिठक जाता हूँ समय की तरह दिन मैं शायद 25-30 ट्रेन आती हैं हॉर्न की आवाज़ से अब मंज़िल पता चलती है ये शायद पुणे वाली शताब्दी गयी हमेशा जल्दी मैं रहती है कम्बख़्त पॅसेंजर ट्रेन तो मेरे घर के पीछे रुक जाती है उसको सिग्नल भी कोई नही देता लोग कूद कर अंगड़ाई लेते हुए इधर उधर ताकते हैं नज़र मेरी भी पड़ती है उधर फिर सोचने लगता हूँ की ये सब कहाँ से चले थे और कहाँ जा रहे होंगे सफ़र कहाँ से कहाँ का है ये शहर इनकी मंज़िल है या एक और ट्रेन बदलनी...