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कहती है वो

रात मैं जिस्मों के अलाव जलते हैं

जब मैं अपने जिस्म से उसका जिस्म

हौले से छु लेता हू

वक़्त रुक जाता है

उस तपिश मैं हम दोनो निखर जाते हैं

सहर होते ही जब ओस

पत्तियॉं की पेशानी

को चूमती है

मैं अपनी गहरी नीद की

आगोश मैं समाया,

दीन दुनिया से बेख़बर

पड़ा रहता हूँ

एक आहट होती है

और वो एक टहनी की तरह

मेरे जिस्म से

लिपट जाती है,

और मैं गुस्से मैं कहता हूँ

“सोने दो अभी”

उसकी गुदगुदी से मैं मुश्किल से उठता हूं,

सफेद बनियान और पजामा पहने हुए

उठते ही हाथ चश्मे पर जाता है

और वो मुझे देखकर निहारती है

मैं उसके नहाने का पानी गरम करता हूँ

वो चुटकुले पढ़कर

मुझे हँसाती है

फिर हम दोनो सुनते हैं

“गुलज़ार” का लिखा एक पुराना नग़मा

एक प्याली सुबह की चाय के साथ

“तुम्हें हो ना हो

मुझको तो इतना यकीन है

मुझे प्यार तुम से

नहीं है नहीं है”

मैं अपना कलाम भी दिखाता हूँ

कुछ बिखरे पन्नों मैं छुपाया हुआ

फिर किसी बात पर हम लड़ते हैं

रूठ जाती है वो,

बच्चे की तरह

मुझे मानना भी नही आता

उसको हसाने का बहाना भी नही आता

मैं सूखे पत्ते की तरह बिखर जाता हूँ

और हम दोनो

गले लग कर अच्छी तरह से रोते हैं

रात जब उसकी ट्रेन का वक़्त होता है

बिना बात पर अश्क़ बहाती है

गुस्सा होता हूँ फिर मैं उस पर,

उसी के लिए

उसका एक एक अश्क़ एक दास्तान कहता है

मौसम मैं भी नमी सी हो जाती है

यकायक हल्की से हँसी आती है उसके चेहरे पर

कहती है वो की उसका “गुलज़ार” हूँ मैं

ट्रेन भी चल देती है

एक नये सफ़र को

मैं वहीं खड़ा रह जाता हूँ

घर आता हूँ

तो देखता हूँ

पत्तियाँ अभी भी गीली हैं…

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