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हाथ की उंगलियों की

हाथ की उंगलियों की खाल बदल रही है
बदलते मौसम का आगाज़ है
ये सिलसिला यूँ ही हर साल
ऐसे ही चलता रहेगा
जब तक अंजाम पे ना
पहुँच जाए ज़िंदगी
अकेले बैठ कर देख रहा हूँ
अपने हाथों को
कोई नही है यहाँ
जो मेरी पेशानी को छू के
सोंधे से अहसास
का दीदार करा दे
कोई तो हो कहीं
जो मेरे मिजाज़ को समझे
जिस्म मैं ये
बदलती हुई खाल पर
क्या कहूँ अब
वक़्त बदलता है
उमर बढ़ती है मुसलसल
ये फलसफा पता है सबको
मगर इस सूने से
कमरे मैं बैठ कर
यही सोच रहा हूं
कब तक चलेगा ये सिलसिला
कब कोई आएगा और
फिर अपने हाथ की
उंगलियों से बे-परवाह
हो पाऊँगा मैं…

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तुम से ही मेरा जीवन है

तुम्हारे जाने के बाद जीवन का सारांश समझ आ गया वो जो अपने होते है उन्ही से जीवन होता है एक छोटी सी बात पे मैने कुछ बोल दिया तुमने उसको बड़ा बना कर बेवजह मोल दिया किसकी ग़लती कौन जाने बस देखता हूँ दरवाज़े को कोई दस्तक दे शायद क्या करूँ , किससे बात करूँ अकेला हूँ पर भीड़ है बौहत थक गया हूँ अपने से लड़ते लड़ते तुम्हारे बिना एक प्याला चाय का भी स्वाद नहीं देता बस तुम हो सामने तो ज़िंदगी कट जाएगी तुम से ही मेरा जीवन है

Jism Tarasha tha tumhara

रेल की पटरी

मेरे घर पे पीछे एक रेल की पटरी गुज़रती है या यूँ कहो की लोग गुज़रते हैं कुछ लोग तो हैं ट्रेन मैं सफ़र करने वाले कुछ पटरी को रास्ता समझ कर बात-चीत करते हुए गुज़रते हुए मैं जब भी बाल्कनी मैं खड़े होकर चाय की प्याली लिए सुबह रेल गाड़ियों को निहारता हूँ तो कुछ लोग मेरी इमारत को देखते हैं नज़र पॅड ही जाती है ना चाहते हुए भी उनकी तब शायद मैं भी उनके सफ़र का हिस्सा बन जाता हूँ उन भागते हुए पेड़ों की तरह जो रास्ते मैं हर मुसाफिर को मिलते हैं जो उनको रास्ता दिखाते हैं मैं तो कोई रास्ता नही दिखाता बस ठिठक जाता हूँ समय की तरह दिन मैं शायद 25-30 ट्रेन आती हैं हॉर्न की आवाज़ से अब मंज़िल पता चलती है ये शायद पुणे वाली शताब्दी गयी हमेशा जल्दी मैं रहती है कम्बख़्त पॅसेंजर ट्रेन तो मेरे घर के पीछे रुक जाती है उसको सिग्नल भी कोई नही देता लोग कूद कर अंगड़ाई लेते हुए इधर उधर ताकते हैं नज़र मेरी भी पड़ती है उधर फिर सोचने लगता हूँ की ये सब कहाँ से चले थे और कहाँ जा रहे होंगे सफ़र कहाँ से कहाँ का है ये शहर इनकी मंज़िल है या एक और ट्रेन बदलनी...