हाथ की उंगलियों की खाल बदल रही है
बदलते मौसम का आगाज़ है
ये सिलसिला यूँ ही हर साल
ऐसे ही चलता रहेगा
जब तक अंजाम पे ना
पहुँच जाए ज़िंदगी
अकेले बैठ कर देख रहा हूँ
अपने हाथों को
कोई नही है यहाँ
जो मेरी पेशानी को छू के
सोंधे से अहसास
का दीदार करा दे
कोई तो हो कहीं
जो मेरे मिजाज़ को समझे
जिस्म मैं ये
बदलती हुई खाल पर
क्या कहूँ अब
वक़्त बदलता है
उमर बढ़ती है मुसलसल
ये फलसफा पता है सबको
मगर इस सूने से
कमरे मैं बैठ कर
यही सोच रहा हूं
कब तक चलेगा ये सिलसिला
कब कोई आएगा और
फिर अपने हाथ की
उंगलियों से बे-परवाह
हो पाऊँगा मैं…
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